1857 का विद्रोह गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग के कार्यकाल के दौरान हुआ 1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । देश के अधिकांश भाग की तरह राजस्थान की रियासतें भी इस विद्रोह की घटना से प्रभावित हुई।
1857 का विद्रोह कारण
रियासतों में अंग्रेजों का बढ़ता हस्तक्षेप
राजस्थान के राजपूत राज्यों व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच हुई संधियों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख था कि राजपूत शासक अपने राज्यों में सार्वभौम शासक बने रहेंगे अर्थात् कंपनी सरकार इन राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी। फिर भी इन संधियों में ऐसी धाराएं शामिल की गई, जो राजपूत राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप को अवश्यम्भावी बनाने वाली थी ।
राज्य की गद्दी के लिए संभावित उत्तराधिकारियों के बीच संघर्ष, सामंतों की आपसी प्रतिस्पर्धा आदि ने रियासतों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को आसान बना दिया । विशेषकर अल्पवयस्क उत्तराधिकार के मामलों में अंग्रेजों को राज्य पर शिकंजा कसने का म़ौका मिल जाता था क्योंकि सरकार पॉलिटिकल एजेन्ट की अध्यक्षता में रीजेन्सी कौंसिल गठित कर देती थी और उनके द्वारा राज्य का शासन – प्रबंध सीधे उनके हाथ में आ जाता था ।
शासक वर्ग में असंतोष
ब्रिटिश सरकार ने राज्य में व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर डूंगरपुर के शासक जसवंत सिंह को राजगद्दी से हटा दिया था तथा प्रतापगढ़ के दलपत सिंह को डूंगरपुर का शासक बनाया, जो अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मात्र था। इस घटना से शासक वर्ग में असंतोष फैला ।
जयपुर में राजमाता भटियाणी को अधिकारच्युत करने हेतु ब्रिटिश अधिकारियों ने हस्तक्षेप किया जिससे नाराज होकर जनता ने ए. जी. जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) कर्नल एल्विस के सहायक कैप्टेन ब्लेक की हत्या कर दी। इस हत्या के संबंध में जयपुर में आम धारणा यह थी कि नमक संधि के द्वारा अंग्रेजों ने जयपुर राज्य से सांभर हथिया लेने तथा ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण लोगों में तीव्र असंतोष के फलस्वरूप यह घटना घटित हुई ।
कोटा में अंग्रेजों ने झाला जालिम सिंह के विरुद्ध समर्थन किया, जिससे हाड़ा राजपूत नाराज हो गये । परिणामस्वरूप किशोर सिंह और अंग्रेजों के बीच संघर्ष हुए। अलवर में बन्ने सिंह एवं बलवंत सिंह के बीच हुए उत्तराधिकार विवाद में भी अंग्रेजों ने हस्तक्षेप किया । इसी प्रकार, भरतपुर के शासक बलदेव सिंह की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुए उत्तराधिकार विवाद – में अंग्रेजों ने हस्तक्षेप किया । इन सब घटनाओं ने राजपूत शासकों के मन में अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष फैलाने का काम किया । उदाहरणस्वरूप जोधपुर के शासक मान सिंह के व्यवहार को देखा जा सकता है ।
जब गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने अजमेर दरबार के अवसर में राजस्थानी रियासतों के नरेशों को शामिल होने के लिए अजमेर बुलाया तो जोधपुर नरेश मान सिंह ने जाने से इंकार कर दिया । उसने ब्रिटिश विरोधी व्यक्तियों से संपर्क रखा (जैसे पंजाब के रणजीत सिंह) तथा उन्हें शरण व सहायता दी (जैसे जसवंत राव होल्कर, नागपुर के अप्पा साहिब भोंसले, सिंध के अमीर आदि) ।
सामंत वर्ग में असंतोष
राजस्थान के राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित होने से पहले सामंतों का राज्य का आधार स्तम्भ माना जाता था । युद्ध के समय सामंतों की सेना शासक के सहायतार्थ आती थी । चूँकि सरकार के पास अपनी कोई निजी सेना नहीं होती थी, अतएव शासक सामंती सैनिक सेवा पर ही निर्भर होते थे ।
इसीलिए सामंतों के अधिकार व विशेषाधिकार भी बढ़े – चढ़े थे। लेकिन ब्रिटिश संरक्षण के बाद यह कार्य ब्रिटिश सेना ने अपने हाथ में ले लिया। इससे सामंत महत्त्वहीन व प्रभावहीन हो गए ।
दूसरे, ब्रिटिश अधिकारियों ने सामंतों की सैनिक शक्ति को समाप्त कर उन्हें करदाता बनाने पर तुल गयी क्योंकि अंग्रेजों का मानना था कि शासक वर्ग के साथ-साथ उन्हें भी ब्रिटिश संरक्षण मिल रहा है इसलिए उन्हें भी कर देना पड़ेगा । इसका सामंतों ने विरोध किया । लेकिन ब्रिटिश अधिकारी अपने मकसद में कामयाब रहे। तीसरे, जिन सामंतों ने खालिसा भूमि पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर लिया था उनके कब्जे से शासकों ने खालिसा भूमि ब्रिटिश अधिकारी की मदद से छुड़ा लिया । इससे सामंतों में घोर निराशा फैली ।
शासकों व सामंतों की शक्ति को क्षीण करने की ब्रिटिश नीति
शासकों व सामंतों के आपसी कलह में ब्रिटिश सरकार की नीति किसी पक्ष विशेष का समर्थन करने की नहीं थी बल्कि दोनों पक्षों की शक्ति को क्षीण कर दोनों को ही अपना आश्रित बनाने की थी ।
इस नीति के तहत जहाँ एक ओर ब्रिटिश सरकार शासक को पूर्णतः निरंकुश होने से रोकती थी तो दूसरी ओर सामंतों के शक्तिशाली होने के भी सर्वथा विरुद्ध थी । वस्तुतः अंग्रेजों ने दो के झगड़े में तीसरे का फायदा नीति पर अमल किया ।
लार्ड डलहौजी की हड़प नीति / व्यपगत सिद्धांत (Doctrine of Lapse)
लार्ड डलहौजी की हड़प नीति ने राजस्थान के नरेशों को चिन्ता में डाल दिया । जुलाई, 1852 ई. में करौली के शासक नरसिंहपाल के निःसंतान मरने पर करौली रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। इससे यहाँ के राजाओं को यह डर बैठ गया कि ब्रिटिश सरकार देर-सबेर उनके साथ भी यह कर सकती है और उनके राज्य का अस्तित्व समाप्त हो सकता है ।
ब्रिटिश शोषण
चूँकि 1817-18 ई. में ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना के बाद आम नागरिकों का आर्थिक जीवन विषादपूर्ण बनता जा रहा था, अतः जन साधारण ने ब्रिटिश संरक्षण को कभी पसंद नहीं किया। अंग्रेजों के आर्थिक शोषण के कारण लोगों का जीवन निर्वाह करना कठिन हो गया था ।
ब्रिटिश सरकार ने लोगों पर पाश्चात्य विचार व संस्थाएँ थोपने का प्रयास किया, जिससे आम जनता में व्यापक असंतोष फैला । 1835 ई. में राज्य की ओर से अंग्रेजी भाषा पढ़ाने की व्यवस्था की गई जिसे लोगों ने सांस्कृतिक हमला माना। बांकी दास, सूर्यमल मिश्रण आदि ने ब्रिटिशभक्त शासकों की कड़ी आलोचना की ।